असंगतता ( Incompatibility )
असंगतता किसे कहते है इसके लक्षण, कारण एवं प्रकार ( What is Incompatibility, its symptoms, causes and types )
असंगतता का सिद्धान्त एवं इसके प्रकार ( Theory of Incompatibility and its types )
असंगतता के प्रकार ( Types of Incompatibility )
असंगतता दो प्रकार की होती है -
( 1 ) लैंगिक प्रजनन ( Sexual reproduction )
( 2 ) अलैंगिक प्रजनन ( Asexual reproduction )
( 1 ) लैंगिक प्रजनन ( Sexual reproduction )
लैंगिक प्रजनन के सम्बन्ध में जिसका तात्पर्य होता है कि जब सामान्य परागकण इसी पुष्प अथवा अपने वर्ग के दूसरे पुष्पों के अंडाशय को निषेचित करने में असमर्थ रहता है । इसको हम ‘ Self ‘ तथा ‘ Cross ‘ के नाम से पुकारते हैं ।
( 2 ) अलैंगिक प्रजनन ( Asexual reproduction )
अलैंगिक प्रजनन के सम्बन्ध में , जिसका अर्थ है कि रोपण ( Graftage ) में जब मूलवृन्त तथा शाख एक — दूसरे के साथ मिलकर सम्मिलन करने में असमर्थ रहते हैं ।
Sears ( 1936 ) ने लैंगिक असंगतता का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया है जो पराग नलिका की वृद्धि अविरुद्ध होने के समय अथवा असंगतता पैदा होने के समय के अनुसार है ।
Group I — पराग नलिका के अंकुरण से पहले ( Before the pollen tube germinates ) -
इस वर्ग में पराग नलिका की वृद्धि अविरुद्ध हो जाती है अथवा कुछ पराग नलिका पैदा होती हैं लेकिन वर्तिका ( Style ) के भेदन के समय उनकी वृद्धि अविरुद्ध हो जाती है ।
जैसे — Brassica oleracea तथा Raphanus Salvus.
Group II — जब पराग , वर्तिका में अंकुरित होता है ( When pollen is growing in the style ) -
इस वर्ग में नपुंसक पराग की पराग नलिका की वृद्धि वर्तिका क्षेत्र में रुक जाती है । कुछ तो वर्तिका को भेदकर कुछ दूरी तक जाती है , लेकिन दूसरे वर्तिका के आधार पर ही अंकुरित होती रहती है ।
Nemesia में कुछ पराग नलिकाये अंडाशय में प्रविष्ट कर जाती हैं लेकिन Sears ने बतलाया कि निषेचित अंडकोष को इतनी कम संख्या होती है जो अंडाशय को गिरने से नहीं रोक पाती है।
जैसे — Petuna Trolacea तथा Lunara reticulata .
Group III — जब पराग नलिका अंडाशय तक पहुँच जाती है ( When the pollen the reaches the ovary ) -
इसमें निषेचन होता है लेकिन निषेचित अंडकोष नष्ट हो जाते है।
जसे — Cherries diplond तथा Varieties of apple , है ।
लैंगिक प्रजनन के लक्षण ( Signs of sexual reproduction )
( e ) फूल अथवा फल खूटियों का गिरना Abscission of the flowers and fruit lets .
अनुवांशिक कारण ( Genetical Causes ) -
प्रतिरोधक कारक कथन सर्वप्रथम East Mongles Dorf ने 1926 में तम्बाकू के ऊपर कार्य करके सुझाया । इस कथन के अनुसार यह महसूस किया गया कि allelomorphs जिनको S , S . . . . S नाम दिया गया की एक लम्बी कड़ी है ।
जब कारक ‘ S ‘ पराग तथा वर्तिका कोषा में उपस्थित होता है तो पराग नलिका की वृद्धि अविरुद्ध होती है । इस प्रकार अनुसंधान कार्य से ज्ञात हुआ कि असंगतता रूप के लक्षणों की तरह जीन्स द्वारा ज्ञात की जा सकती है ।
उदाहरण स्वरूप अगर पौधे में S , S , लक्षण हैं तो पराग नलिका की वृद्धि बहुत कम होगी जो निषेचन हेतु समय पर अंडकोष तक नहीं पहुँच पायेगी । अगर पैत्रक पौधे में S . S . लक्षण हैं तो , के पर्याप्त बढ़ने से निषेचन समय पर सम्पन्न हो जायेगा ।
इस प्रकार पराग तथा वर्तिका , जिनमें कि वे ही Allels हैं तो स्वयं सचेन असफल हो जायेगा । इसी तरह वही उपजाऊ कारक ( Fertility factor ) अथवा Allels की उपस्थिति में परसेचन भी असफल रहता है तथा असंगतता पैदा हो जाती है ।
( a ) असंगतता ज्ञात करने के लिए फूलों को पारदर्शक थैले अथवा कपडे के थैले द्वारा ढक कर कसकर बाँध दिया जाता है जिससे फूलों के समीप कीट न पहँच सकें ।
अगर फल संतोषप्रद दशा में बन जाते हैं तो उपजाति को स्वयं फलित कहा जाता है और अगर फल नहीं बनते तो उसको स्वयं अफलित कहा जाता है ।
कीट सेचित फसल में कीट को थैले के अन्दर प्रविष्ट किया जाता है ।
( b ) असंगतता ज्ञात करने का दूसरा तरीका यह होता है कि फूलों को इमैस्कुलेशन ( Emesculation ) के उपरान्त बनावटी ढंग से सेचित किया जाता है तथा बाद में ढक दिया जाता है ।
अगर सभी स्वंसेचित फूल फल नहीं बनाते तथा परसेचित फल फल उत्पन्न करते हैं को दमका निष्कर्ष यह निकाला जाता है ।
कि यह उपजाति स्वयं अफलित है . लेकिन पर — फलित ( Cross compatible ) है ।
( b ) गुण सूत्रों की संख्या बदलने से ( By changing the chromosomes number ) -
Stout and Chandler ( 1943 ) ने ज्ञात किया कि Petunea oxallaris के आंशिक उपजाऊ फूल पूर्ण रूप से अयोग्य ( Incompatible ) होते हैं । किसी प्रकार उसी पौधे पर त्रिगुणसूत्री के स्वयं सेचित फूलों ने बीजों से भरे कैपसूल पैदा किये ।
स्वयं बन्धित द्विगुणी शाखाओं ने भीबीजों से भरे कैप्सूल पैदा किये लेकिन जबकि उनका त्रिगुणसूत्री को द्विगुणसूत्री से सेचित किया गया तो कोई बीज प्राप्त नहीं हुआ ।
इस प्रकार गुणिसूत्रों की संख्या का प्रभाव असंगतता पर पड़ता है । असंगतता को दूर करने के लिए गुण सूत्रों की संख्या 2x से बढ़ाकर 4x कर देनी चाहिए , जोकि कोल्चीसीन ( Colchicine ) तथा अन्य रसायनों के प्रयोग से सम्भव होता है ।
( c ) अगर असंगतता वर्तिकाग्र ( Stigma ) की ऊपरी पर्त के स्राव के कारण होती है तो ऊपरी पर्त को खुरचने से इसको दूर किया जा सकता है । लेकिन यह अधिकतम रूप में सम्भव नहीं होता है ।
( d ) रासायनों के प्रयोग से ( By the use of chemicals ) -
वर्तिकाग्र को उपयुक्त रसायन से उपचारित करने से पराग नलिका की वृद्धि को बढ़ाया जा सकता है ।
( Smith ( 1942 ) के अनुसार इन्डोल बूटाइरिक एसिड के प्रयोग से पराग अंकुरण को प्रोत्साहन मिलता है तथा पराग नलिका की लम्बाई में वृद्धि होती है ।
स्वयं — असंगतता ( Self — incompatability ) एल्फा नैप्थलीन एसीटामाइट के प्रयोग से भी दूर की जा सकती है ।
पाइरीडीन ( Pyridine ) तथा प्योरीडीन ( Puridine ) भी प्रभावकारी होती है । एल्फा नैथलीन एसीटामाइड अंडाशय के स्राव को उदासीन बनाती हैं जो वर्तिका को बाधा पहुँचाता है तथा पराग नलिका की वृद्धि को अवरुद्ध करता है ।
चेरी ( Prunusavium ) में इस रसायन के प्रयोग से वर्तिका के आधार पर बनने वाली विगलन पर्त ( Abscission layer ) को बनने में बाधा पहुँचाता है जिससे पराग नलिका की वृद्धि अधिक दूरी तक पहुँच सके ।
असंगतता के लाभ ( Incompatibility benefits )
( b ) यह बनावटी रूप से संकरण कार्य में होने वाले खर्च में कमी लाती है क्योंकि स्वयं अयोग्य फूलों में इमैस्कूलेशन की आवश्यकता नहीं पड़ती ।
( c ) अगर उपजातियाँ पर अयोग्य ( Cross compatible ) हैं तो उनको स्वयं फलित उपजातियों के बगल में लगाया जा सकता है , क्योंकि गुणवत्ता खराब होने का कोई भी भय नहीं रहता ।
असंगतता की कमियाँ ( Incompatibility deficiencies )
( a ) अगर कोई फल -
उत्पादनकर्ता अनभिज्ञता वस अयोग्य पौधों को फलोद्यान में लगा । लेता है तो उसको बहत नुकसान होता है ।
( b ) अभिजननकर्ता को अधिक कठिनाई हो जाती है जब कोई ऐच्छिक उपजातियाँ अयोग्य साबित हो जाती हैं ।
( 2 ) अलैंगिक प्रजनन ( Asexual reproduction )
अलैंगिक प्रजनन के प्रकार ( Types of Asexual reproduction )
( e ) ऐसा मिलाप जिसकी कोषा प्रणाली ( Tissue system ) में विघटन पैदा हो जाता है एवं संचित खाद्य पदार्थों का असामान्य वितरण होने लगता है । पौधे की पत्तियाँ परिपक्वता से पहले ही गिरने लगती हैं ।
रोपण वाले पौधे में इसके लक्षण या तो शीघ्र ही प्रगट हो जाते हैं अथवा वृद्धि , फूलने के समय या फल के निर्माण के समय स्पष्ट हो जाते हैं ।
कभी — कभी असंगतता बहुत देरी से ( 10–15 वर्ष ) बाद स्पष्ट होती है , इसको देर से हुई असंगतता ( Delayed Incompatibility ) कहा जाता है ।
पौधों में असंगतता के निम्न लक्षण प्रकट होते हैं -
( b ) पौधे के स्वभाव के अनुरूप वानस्पतिक वृद्धि न होना ।
( f ) सम्मिलन से नीचे अथवा ऊपरी भाग का फूल जाना ।
( कभी — कभी शाख अधिक मोटी हो जाती है तथा मूलवृन्त पतला रह जाता है ) ।
( h ) पत्तियों का शीघ्र झड़ना आधार से न होकर ऊपर से शुरू होता है ।
( i ) पौधों की मृत्यु शीघ हो जाना इत्यादि ।
Heero ( 1951 ) के अनुसार रोपण सम्मिलन शाखा के ऊपरी पत्ती वाले भाग में कुछ पदार्थ पैदा करता है । ये पदार्थ नीचे की ओर बहकर सम्मिलन के पास पहँच जाते हैं , जोकि सम्मिलन के असफल होने का कारण बनता है ।
ऐसे रोपण जो विभिन्न प्रकार की किस्मों के मध्य किये जाते हैं , उनकी आन्तरिक बनावट या ढाँचे में कमजोरी आ जाने के कारण कुछ खराबियाँ पैदा हो जाती हैं ।
मूलवृन्त एवं शाख के मध्य विभाज्य ऊतकों ( Vascular tissues ) में सिकुड़न आ जाने से खाद्य पदार्थों का बहाव कम हो जाता है । पोषक तत्वों एवं पानी की अधिक मात्रा का सम्मिलन के पास बढ़ोतरी होने से अतिरिक्त वृद्धि होने लगती है , जिससे सम्मिलन कमजोर हो जाता है ।
छाल की पर्त तथा लकड़ी की विभाज्य कोषिकाओं का सम्मिलन के मध्य पैदा हो जाने से रोपण सम्मिलन असफल हो जाता है ।
आडू की कलिका Mariana अलूचा पर कलिकायन करने से पौधा थोड़े समय तक ठीक वृद्धि करता है लेकिन कुछ समय पश्चात् अचानक सम्मिलन पर फ्लोइम ऊतिकाओं के अविरुद्ध हो जाने से यह असफल हो जाता है ।
नारंगी तथा महानींबू को नींबू प्रजाति के मूलवृत्तों पर रोपित करने से न केवल पौधों की वृद्धि ठिगनी होती है बल्कि मूलवन्त व शाख की छाल पट्टियों के रूप में अलग होने लगती है।
फल अनुसंधान केन्द्र सहारनपुर में नींबू प्रजाति के मूलवृन्तों पर किये गये अनुसंधान कार्य द्वारा यह ज्ञात किया गया है कि मूलवृन्त एवं शाख का व्यास ठीक अनुपात में न होना , असंगतता को बढावा देता है । व्यास आवश्यकता से अधिक व कम होने से सम्मिलन असफल हो जाता है।
( b ) मिलने की असमर्थता को दूर करने के लिए सबसे अच्छा उपाय मिलने के लिए उपयुक्त मूलवृन्त व शाख का चुनाव करना है ।
जब किसी पौधे पर एक ही प्रकार की कलिकायन या रोपण क्रियायें लगातार दो बार की जाती है , तो इसको दोहरा रोपण कहा जाता है ।
कभी — कभी रोपण किये गये पौधे खराब किसा के फल पैदा करने लगते हैं ।
ऐसे पौधों को दोबारा उच्च श्रेणी की जाति से रोपण करके अच्छे किस्म के फल पैदा करने योग्य बनाया जा सकता है ।
इसके साथ — साथ दोहरे — रोपण के कुछ और भी उद्देश्य हैं ,जो निम्नलिखित हैं -
( b ) न्यून तापक्रम एवं बीमारियों से प्रतिरोधक ( Resistant ) तने पैदा करना ।
( d ) शक्तिशाली तना प्राप्त करना । दोहरे रोपण का मुख्य उद्देश्य मूलवन्त तथा शाख के मध्य मिलने की असमर्थता को दर करना होता है ।
दोहरे रोपण में तीन प्रकार के पौधे प्रयोग किये जाते हैं -
1 . मूलवृन्त ( Root stock )
2 . माध्यम मूलवृन्त ( Intermediate stock )
सर्वप्रथम रोपण अथवा कलिकायन द्वारा मूलवृन्त पर पहली शाख जिसको माध्यम मूलवृन्त कहा जाता है , लगा दिया जाता है । जब ये दोनों आपस में जुड़कर मजबूत हो जाते हैं तो तीसरा पौधा शाख ( Scion ) को दोबारा क्रिया करके लगा दिया जाता है ।
इस क्रिया को करने में दूसरा पौधा ऐसा होना चाहिए , जो मूलवृन्त के लिए शाख की तरह कार्य करे तथा सही शाख के लिए मूलवृन्त का कार्य करे । यह क्रिया आम तथा नाशपाती के अन्दर सफलतापूर्वक अपनाई जा चुकी है ।
कोदूर में हुए आम के ऊपर अन्वेषण कार्य में यह ज्ञात किया गया कि आम में दोहरा रोपण सफलतापूर्वक किया जा सकता है लेकिन पौधे ठिगने पैदा होते हैं तथा फलों का आकार छोटा हो जाता है । आम के अन्दर इनाचिंग द्वारा इसको सम्पन किया गया ।
नाशपाती के अन्दर इसकी ‘ Bartlett ‘ जाति , विवश ( Quince ) मूलवृन्त पर सीधे रूप में रोपण द्वारा सफल नहीं होती है । इसके लिए Old home pear ‘ माध्यम मूलवृन्त N ( Inter — mediate stock ) के रूप में प्रयोग किया जाता है ।
सर्वप्रथम दिवश मूलवन्त पर ‘ ओल्ड होम पियर ‘ की कलिका लगा दी जाती है । जब कलिका नये प्ररोह के रूप में फूटकर मजबूत हो जाती है तथा प्ररोह क्रिया करने के अनुकूल हो जाता है तो ‘ वार्ट लैट ‘ जाति की शख से कलिका निकालकर ‘ ओल्ड होम पियर ‘ पर लगा देते हैं ।
जब कलिका फूट कर ऊपरी सिरे को पूर्ण रूप से विकसित कर देती है तो पौधे को रोपणी से उठाकर दूसरे स्थान पर लगा दिया जाता है । नाशपाती की इसी जाति को इन्हीं मूलवृन्त की सहायता से रोपण द्वारा भी उत्पन्न किया जाता है ।
इसमें सर्वप्रथम ‘ Barlett ‘ नाशपाती की जाति को Old home pear ‘ पर रोपित कर दिया जाता है । जब घाव भर कर मजबूत हो जाता है तो इस ग्राफ्ट को रोपणी में quince ‘ मूलवृन्त पर लगा दिया जाता है । इसमें ‘ ओल्ड होम पियर ‘ माध्यम मूलवृन्त के रूप में प्रयोग की जाती है ।
असंगतता की कमियाँ ( Incompatibility deficiencies )
( c ) सवहन ऊतकों ( Vascular tissues ) के सिकुड़ने से खनिज पदार्थ एवं पानी व अन्य पोषक तत्वों का बहाव बन्द हो जाता है , जिससे मिलाप बिन्दु के अतिरिक्त वृद्धि होने से सम्मिलन असफल हो जाता है ।
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