भारत में सिंचाई के स्रोत ( Sources of Irrigation in India )
भारत में सिंचाई के स्रोत एवं उपयोग किए जाने वाले सिंचाई के साधन कोन से है?
सिंचाई क्या है? Definition Irrigation in hindi
फसलोत्पादन में जल के अभाव में पौधे को जीवन असम्भव होता है । पोधों को जीवनकाल में अधिक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है ।
प्राकृतिक रुप से जल की आवश्यकता पूर्ति नहीं हो पाती अतः पौधे की वृद्धि एवं विकास के लिए कृत्रिम रुप से पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है, जिसे सिंचाई ( Irrigation ) कहते हैं ।
भारत में सिंचाई के कोन-कोन से स्रोत है? ( What are the sources of irrigation in India)
फल वाले पौधों की वानस्पतिक वृद्धि एवं फलत दोनों के लिये पानी की आवश्यकता होती है ।
केवल वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष दिनों में पौधों को सींचा जाता है ।
वर्षा ऋतु में भी जब वर्षा काफी अन्तर से होती है तो पौधों को आवश्यकतानुसार सिंचाई देना लाभप्रद होता है , जैसे कि यदि फल — वृक्षों से फल गिर रहे हों तो पानी देने से उनका गिरना बन्द हो जाता है ।
सिंचाई फल — वृक्षों की जाति के अनुसार अपना प्रभाव रखती है जैसे कि आम के पौधों को यदि एक बार पानी न भी दिया जाये तो विशेष हानि नहीं होती है लेकिन नींबू प्रजाति के पोध पानी के अभाव में सूखने लगते हैं ।
सिंचाई के परंपरागत स्रोत ( Traditional sources of irrigation )
( 1 ) प्राथमिक स्रोत ( Primary Sources )
( 2 ) द्वितीयक स्रोत ( Secondary Sources )
प्राकृतिक रूप से जल तीन रुपों
( iii ) बर्फ में पाया जाता है । मूल रूप से जल के स्त्रोत वर्षा व हिमपात हैं । वर्षा व हिमपात से प्राप्त जल की भौतिक स्थिति निरन्तर बदलती रहती है ।
विभिन्न उद्देश्यों के लिये जल प्राप्त करने के मुख्य स्रोत द्वितीयक स्रोत ही हैं ।
जलीय चक्र ( hydrological cycle ) के विभिन्न चरणों से गुजरते हुये पानी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होता है ।
जल के इन स्रोतों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है ,
2 . भूमिगत स्त्रोत व भूमिगत जल ।
वर्षा व हिमपात से प्राप्त होने वाले जल का कुछ भाग वाष्पीकृत हो जाता है , कुछ भाग रिस कर नीचे चला जाता है और भूमिगत जल में मिल जाता है तथा शेष बड़ा भाग भूमि सतह के ऊपर रहता है जो सतही जल कहलाता है ।
सतही जल के कई स्रोत हैं जिनमें से कुछ मुख्य निम्न हैं -
नदियाँ सतही जल का सबसे बड़ा स्रोत है । वर्षा तथा बर्फ के पिघलने से प्राप्त होने वाला जल पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति के अनुसार भू — क्षेत्र के निम्नतम स्तर ( lowest level ) पर एक धारा के रूप में बहता हुआ बढ़ता है ।
धारा जैसे — जैसे आगे बढ़ती है उसमें अन्य धारायें । मिलती चली जाती हैं जिससे धारा का रूप बढ़ता चला जाता है और यह एक नदी का रूप ले लेता छ नदियों में केवल वर्षा काल का विपरीत कुछ नदियों में जल नदियाँ जिनमें नदियाँ ( seasonal rivers ) मात्रा में पर्याप्त घटत — बढ़त होती हैं ।
सिंचाई का कुछ नदियों में केवल वर्षा काल के दौरान ही जल उपलब्ध रहता है ।
ऐसी नदियाँ मौसमी ( seasonal rivers ) कहलाती हैं । इसके विपरीत कछ नदियों में जल वर्ष के हर समय उपलब्ध रहता है , हालांकि जल की मात्रा में पर्याप्त घटत — बढ़त होती रहती है ।
ऐसी नदियाँ जिनमें हर समय पानी उपलब्ध रहता है , बारहमासी नदियाँ ( perennial rivers ) कहलाती हैं ।
सिंचाई की । दृष्टि से बारहमासी नदियाँ सबसे महत्वपूर्ण हैं । सिंचाई के लिये नहरें नदियाँ से ही निकाली जाती हैं । इस प्रकार नहरों से प्राप्त होने वाला जल नदी का जल ही है ।
नदियों पर बाँध बना कर उसमें एकत्रित कर लिया जाता है जो जल विद्युत उत्पादन , सिंचाई , जल आपूर्ति ( water supply ) व अन्य बहुत से कार्यों में प्रयोग किया जाता है ।
नदियाँ जिन क्षेत्रों में बहती हैं , उससे जल रिस — रिस कर भूमि में चला जाता है और इस प्रकार भूमिगत जल स्त्रोतों का निर्माण होता है ।
आजकल भूमिगत पानी का सिंचाई व जल आपूर्ति कार्यों में । नलकूप स्थापित करके भरपूर उपयोग किया जाने लगा है ।
भूमि सतह पर प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से बने गडढों तथा निचले स्थानों ( depressions ) में वर्षा का जल एकत्रित हो जाता है जिन्हें तालाब कहते हैं ।
इनमें जल की मात्रा बहत कम होती है । अत : सिंचाई की दृष्टि से इनका महत्व नगण्य है ।
इन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में केवल पशओं को नहलाने , पानी पिलाने अथवा कपड़े धोने जैसे कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि इस पानी की क्वालिटी बहुत निम्न श्रेणी की होती है ।
पहाड़ी क्षेत्रों में जहाँ भमि सतह अत्यन्त ऊँची नीची होती है , किन्हीं स्थानों पर तीव्र ढलान होता है तथा वह स्थान चारों ओर से ऊँचे स्थानों से घिरा होता है ।
ऐसा निचले स्थानो में वर्षा तथा झरनों का पानी एकत्रित हो जाता है जिससे झील का निर्माण हो जाता है । प्रकृति में कई बहुत बड़ी — बड़ी झीलें हैं ।
कुछ बहुत बड़ी झीलों का निर्माण भूकम्प के कारण जमीन के नीचे धंसने के कारण भी हुआ है ।
बड़ी झीलें अपने क्षेत्र में जल आपूर्ति व सिंचाई के लिये एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं ।
हमारे देश में अनेक बड़ी झीलें हैं जिनमें से काशमीर की डल झील , नैनीताल की नैनी झील विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
भौगोलिक परिस्थिति अनुकूल होने की स्थिति में तटबंध बना कर कृत्रिम झीलें भी बनायी जा सकती है ।
कृत्रिम झीलों का एक मुख्य उदाहरण चंडीगढ़ की सुखना झील है ।
वर्षा से प्राप्त होने वाले जल का एक बड़ा भाग भूमि से रिस कर नीचे भूमिगत जल में मिल जाता है ।
पहाड़ी स्थानों में जहाँ भूमि की सतह के स्तर में अत्यधिक अन्तर पाया जाता है , किन्हीं स्थानों पर भूमि का तल जल की द्रवीय ढाल रेखा ( hydraulic gradient line ) से नीचे चला जाता है ।
इस स्थिति में भूमिगत पानी जलीय दाब के कारण भूमि से बाहर निकलने लगता है और इससे झरनों का निर्माण होता है ।
कुछ झरने काफी बड़े होते हैं । बड़े झरने पहाड़ी क्षेत्रों में जल आपूर्ति व सिंचाई के लिये काफी महत्वपूर्ण है ।
झीलों के निर्माण में इन झरनों का महत्वपर्ण योगदान होता है । कुछ झरने बारहमासी होते हैं जबकि कुछ झरनों में केवल वर्षा के दिनों में ही जल उपलब्ध रहता है ।
प्रकृति में बहुत से प्रपात हैं जैसे मसूरी का कैम्टी प्रपात । कनाडा का नियाग्रा प्रपात एक विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है ।
वर्षा से प्राप्त होने वाले जल का काफी बड़ा भाग भूमि में रिस कर नीचे चला जाता है और वहाँ पारगम्य परतों में एकत्रित हो जाता है । यह पानी ही भमिगत पानी है ।
पृथ्वी पर भूमिगत पानी के अथाह भंडार है तथा यह पानी का एक अत्यन्त महत्त्वपर्ण स्रोत है ।
इस पानी की एक बड़ी विशेषता ह कि कुछ स्थाना को छोड़कर सभी जगह उपलब्ध है और जहाँ कहीं जब कभी भी आवश्यकता हो , नलकूप लगाकर प्राप्त किया जा सकता है ।
सामान्य रूप से इस पाना का क्वालिटा भी अच्छी होती है ।
जल आपूर्ति , सिंचाई व औद्योगिक आवश्यकताएँ पूरी करने कालय आजकाल इस पानी का विश्व भर में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है ।
भूमिगत पानी को ऊपर लाने की कई विधियाँ हैं जिनमें कुछ प्रमुख निम्न है -
स्थान विशेष की भौगोलिक स्थिति के अनुसार भूमि की सतह के नीचे कई पारगम्य तथा अपारगम्य परतें होती हैं ।
पारगम्य परत से पानी रिस कर नीचे पहुँच जाता है जो अपारगम्य परत के ऊपर एकत्रित होता रहता है ।
इस प्रकार पारगम्य तथा अपारगम्य परतों के बीच जलग्राही परत बन जाती हैं । इस पानी को प्राप्त करने के लिये कूपों का निर्माण किया जाता है ।
कूप निर्माण के लिये पृथ्वी सतह से जलग्राही परत तक एक बड़ा छिद्र बनाया जाता है जिसे कुआँ कहते हैं ।
जलग्राही परत से पानी रिस — रिस कर कुएँ में आता रहता है ।
कुएँ की पानी की क्षमता बहुत सीमित होती है लेकिन ग्रामीण व एकाकी ( isolated ) क्षेत्रों में घरेलू उपयोग के लिये पाना प्राप्त करने का यह एक अत्यन्त उपयोगी साधन है ।
कुएँ के ऊपर घिरनी लगा कर बाल्टियों से पानी प्राप्त किया जाता है ।
कूप में ढेकली लगा कर छोटे क्षेत्र में सिंचाई की जाती है । कुछ समय पहले तक कुओं पर रहट ( persian wheel ) लगा कर सिंचाई करने की विधि काफी प्रचलित थी ।
लेकिन आजकल नलकूपों ( tube wells ) के प्रचलन से रहट विधि लुप्तप्राय हो गयी है ।
भूमिगत पानी प्राप्त करने का ये प्रमुख साधन है । और आजकल काफी बड़े पैमाने पर प्रयोग किये जाते हैं ।
इनकी पानी देने की क्षमता काफी अधिक होती है तथा इससे प्राप्त पानी की क्वालिटी भी अच्छी होती है ।
घरेलू प्रयोग के लिये जल आपूर्ति , सिंचाई व औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति सभी के लिये नलकूप बहुत प्रचलित हैं ।
नलकूप निर्माण में भूमि तल से नीचे जलग्राही परतों तक एक छिद्र बेधा जाता है । यह छिद्र नीचे की कई पारगम्य परतों में से होकर गुजरता है ।
इस छिद्र में छिद्रित पाइप डाल कर उसके ऊपर एक मोटर तथा पम्प लगा कर नलकूप बनाया जाता है । जिन स्थानों पर नहरें नहीं होती हैं , उन स्थानों में नलकूप ही सिंचाई का प्रमुख साधन है ।
सरकार किसानों को वित्तीय सहायता उपलब्ध करा कर नलकूप लगाने के लिये प्रोत्साहन देती है ।
कुछ स्थानों पर सरकार स्वयं नलकूप लगवाती है और उनसे किसानों को प्रति घण्टे की दर से मल्य पर सिंचाई पानी उपलब्ध कराती है ।
जैसा कि हम जानते हैं भूमि सतह के नीचे एकान्तर ( alternate ) पारगम्य व अपारगम्य परतें होती हैं ।
पहाड़ी क्षेत्रों में जब कोई जलधारी परत ( water hearing stratum or acquifer ) दा अपारगम्य परतों ( impervious strata ) के बीच में पारी परत तीव्र ढाल पर होती है तो जलधारी परत के निचले स्थानों पर पानी का दबाव बहुत अधिक बढ़ जाता हैं।
ऐसे स्थानों पर भूमि सतह को भेदा जाये तो जलग्राही परत से पानी दाब के साथ बाहर निकलने लगता है जिसका प्रयोग सिंचाई व घरेल उपयोग के लिये किया जा सकता है ।
प्रकृति में बहुत से ऐसे स्थान है जहा पाताल तोड़ कुओं के निर्माण की अनुकूल स्थितियाँ हैं ।
उत्तर प्रदेश में पंतनगर जिला ननाताल में पाताल तोड़ कुओं के लिये अनकल स्थितियाँ हैं लेकिन इनका उपयोग बहुत सीमित है ।
जिन स्थानों में भमि सतह से थोड़ी काफी लम्बाई की जलधारी परत हो , वहाँ पर जलधारी परत के समान्तर एक मिला कर जलधारी परत से रिसने वाल पानी को एकत्रित करके प्रयोग किया जा सकता सवण गैलरी कहलाती है ।
रिसने वाला पानी गैलरी में प्रवेश कर सक है । यह पाइप लाइन ही अन्त : स्त्रवण गैलरी कहलाती है ।
रिसले तथा जोड़ खुले होने चाहिये । पाइप के छिद्रों व होने से बचाने के लिये पाइप लाइन के चारो ओर बजरी व रेत का 4 mदप लाइन मथाड़ा — थोडी दरी पर सम्प ( sumps बना दिये जात है।
इसके लिये पाइप लाइन में पाइन रंध्रमय होने चाहियें तथा जोडों को अवरूद्ध ( choke ) होने से बचाने के लिये फिल्टर लगाया जाता है ।
पाइप लाइन में थोड़ी — थोड़ी जिनमें पाइप लाइन में आने वाला पानी एकत्रित होता रहता है जिसे पम्पों द्वारा बाहर निकाल कर प्रयोग किया जाता है ।
यह कोई मानक स्रोत नहीं है । स्रवण गैलरी बिछाने में काफी समय व धन लगता है तथा इससे प्राप्त पानी की मात्रा भी प्रायः कम होती है ।
अतः सिंचाई की दष्टि से अन्त : स्रवण गैलरी का कोई महत्व नहीं है ।
समग्र नहरी क्षेत्र ( Gross Commanded Area or G . C . A . ) — किसी नहर का समग्र नहरी क्षेत्र वह क्षेत्र है जो उस नहर द्वारा , उपलब्ध पानी की सीमा का ध्यान न करते हए , सिंचित किया जा सकता है -
नहरें साधारणतः पन विभाजक रेखाओं ( watershed lines ) पर बहती हैं और अपने दोनों ओर के क्षेत्रों को गुरूत्व प्रवाह द्वारा सिंचित करती हैं ।
इस पर विभाजक रेखा के दोनों तरफ की घाटी रेखाओं ( drainage lines ) के बीच का समस्त क्षेत्रफल उस पर विभाजक रेखा पर बहने वाली नहर का समग्र नहरी क्षेत्र होता है ।
घाटी रेखा के बाद भूमि में पुनः चढ़ाव आरम्भ हो जाता है जिसके कारण नहर का पानी दोनों साइड़ों की ड्रेनेज लाइनों से दूर नहीं किया जा सकता है ।
नहर के समग्र नहरी क्षेत्र में सिंचित क्षेत्र के साथ — साथ ऊसर भूमि , स्थानीय तालाब , गाँव तथा दूसरे सभी क्षेत्र भी आते हैं ।
कृष्य नहरी क्षेत्र ( Culturable Command Area orC . C . A . ) -
यदि समग्र नहरी क्षेत्र में से ऐसे क्षेत्र घटा दिया जायें जिन पर खेती नहीं की जा सकती है ।
जैस आबादी वाले क्षेत्र , तालाब , ऊसर , भूमि इत्यादि तो बाकी क्षेत्र कृष्य नहरी क्षेत्र बचेगा ।
कृष्य नहरी क्षेत्र ( C . C . A . ) = समग्र नहरी क्षेत्र ( G . C . A . ) -
वह क्षेत्र जिस पर खेती नहीं की जा सकती है ( unculturable area ) कृष्य नहरी क्षेत्र में खेती योग्य समस्त क्षेत्र चाहे उस पर खेती न भी होती हो सम्मिलित होने हैं ।
इस प्रकार आबादी वाले क्षेत्र , तालाब , ऊसर भूमि इत्यादि तो इसमें सम्मिलित नहीं होंगे क्योंकि इन पर कषि करना सम्भव नहीं है लेकिन चारागाह व अविकसित खाली भूमि इसमें शामिल होगी ।
कभी — कभी नहरी कृष्य क्षेत्र को पुनः निम्न दो वर्गों में बाँट दिया जाता है -
( i ) कृष्य ( Cultivated ) क्षेत्र
( ii ) कषि योग्य लेकिन कृष्य नहीं ( Cultivable but not cultivated )
राष्ट्रीय जल नीति ( National Water Policy )
हमारे देश में राष्ट्रीय जल नीति का निर्माण करने के लिये या गया जिसकी पहली बैठक 30 अक्टूबर , 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जनता में हुई ।
देश में एक जल नीति का निर्माण किया गया जिसकी स्वीकृति राजीव गाँधी की अध्यक्षता में हुई । देश में एक जल नीति का सितम्बर , 1987 में दी ।
इस नीति की कुछ प्रमुख विशेषतायें निम्न प्रकार हैं -
( 1 ) राष्ट्र की एक मूल्यवान सम्पत्ति है और इसी सन्दर्भ में इसका उपयोग एवं नियोजन किया जाना चाहिए ।
( 2 ) इस नीति में यह भी कहा गया है कि जिन राज्यों में जल संसाधनों की अधिकता है वहाँ से यह संसाधन कमी वाले राज्यों में हस्तान्तरित किये जा सकते हैं ।
( 3 ) इस जल नीति में जल संसाधनों के कुशलतम उपयोग पर जोर दिया गया ।
( 4 ) जल एक राष्ट्रीय सम्पत्ति है अत : यह व्यर्थ न जाये , इस बात का पूर्ण प्रयास करना चाहिए ।
भारत की तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या और देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के सन्दर्भ में जल संसाधनों का बड़ा महत्व है ।
पीने के लिए जल की आवश्यकता तो होती है । कृषि , उद्योग , जहाजरानी आदि क्षेत्रों में भी जल — संसाधनों का स्थान विशेष महत्व रखता है ।
पीने के लिए जल के अतिरिक्त देश में जल का सबसे अधिक महत्व कृषि उत्पादन के लिए है ।
केन्द्रीय सरकार ने जल संसाधनों के विकास के लिए निम्न संगठनों का गठन किया है -
( 1 ) केन्द्रीय जल आयोग -
देश में जल संसाधनों के विकास के लिए 1995 में सरकार ने एक केन्द्रीय जल आयोग की स्थापना की थी ।
इस आयोग के प्रमुख कार्य हैं -
जल संसाधन परियोजनाओं के सन्दर्भ में अनुसंधान करना , इन योजनाओं का तकनीकी मूल्यांकन करना , व्यापक प्रोजेक्ट रिपोर्ट की डिजाइन बनाने एवं बाढ़ नियन्त्रण , पूर्वानुमान में सलाह देना तथा नदी प्रबन्ध व अनुसन्धान एवं विकास में सहायता करना ताकि राष्ट्रीय जल नीति बनाने में सहायता मिल सके ।
( 2 ) केन्द्रीय भूमिगत जल बोर्ड -
आज यह बोर्ड हमारे देश में भमिगत जल के सम्बन्ध में सर्वोच्च संगठन है ।
मूल रूप में इस बोर्ड का गठन 1952 में हुआ था , लेकिन 1972 में इसे भूगर्भ सर्वेक्षण की भमिगत जल इकाई में मिला दिया गया ।
यह बोर्ड पूरे देश में भूमिगत जल के विकास से सम्बन्धित नीति , कार्यक्रम और रणनीति बनाता है । इस बोर्ड का एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य होते हैं ।
( 3 ) राष्ट्रीय जल विकास एजेन्सी -
इसकी स्थापना 1982 में की गयी थी ।
इस एजेन्सी का प्रमुख कार्य नदियों को मिलाकर पानी का सदुपयोग करने की सम्भावनाओं का पता लगाना है जिससे कि पानी के आधिक्य को कमी वाले क्षेत्रों में पहुँचाया जा सके ।
Originally published at https://www.agriculturestudyy.com on March 25, 2020.