भू परिष्करण (Tillage)
भू परिष्करण किसे कहते है इसका महत्व,उद्देश्य एवं इसके प्रकार लिखिए ( What is , write its importance, purpose and its types )
भू परिष्करण शब्द का अर्थ ( Meaning of the Tillage )
भू परिष्करण शब्द की उत्पत्ति एग्लो शब्द टिलियन ( Tilian ) से हुई है ।
Tilian का अर्थ है। जुताई करना अर्थात् भूमि पर कर्षण क्रियाएँ कर उसे बुवाई के लिये तैयार करना ।
भू परिष्करण की परिभाषा ( Definition of Tillage )
“ किसी खेत में फसल का बीज बोने से पूर्व उसकी मृदा को उचित अवस्था में लाना तथा फसल के कुल वृद्धिकाल में मृदा की इस उचित अवस्था को अधिकतम उत्पादन के लिये फसले के अनुकूल बनाये रखने की क्रियाएँ भू परिष्करण कहलाती हैं । “
भू परिष्करण क्या है ( What is Tillage )
भूमि में डिस्क , हैरो और हल आदि विभिन्न कृषि यन्त्रों एवं औजारों की सहायता से बीज अंकुरण , भ्रूण स्थापन और पौधों की वृद्धि के लिये की गई कृषण क्रियाएँ भू — परिष्करण में सम्मिलित होती हैं ।
पौधों की उचित वृद्धि हेतु भूमि में पर्याप्त मात्रा में जल तथा खाद्य — पदार्थों का होना आवश्यक है ।
भूमि में उपस्थित जल एवं खाद्य — पदार्थों की पौधों को उपलब्धता अनुकूल वातावरण होने पर बढ़ती है और इससे फसल के उत्पादन में वृद्धि होती है ।
अतः पौधों की उचित वृद्धि एवं विकास के लिए भूमि में अनुकूल वातावरण होना अत्यन्त आवश्यक है और इसके लिए भूमि का कुशल प्रबन्धन महत्वपूर्ण है ।
फसलोत्पादन हेतु भूमि में जल और वायु का संतुलन बनाये रखने के लिये भू — परिष्करण की क्रियायें सहायक होती हैं ।
भू — परिष्करण में पौधों की वृद्धि हेतु उपयुक्त वातावरण बनाने के लिये उससे सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों एवं क्रियाओं का समन्वित प्रयोग एक उत्तम उपाय है ।
भू परिष्करण के प्रकार ( Types of Tillage )
भू — परिष्करण की क्रियाओं के लिये बहुत से कृषि यन्त्र प्रयोग में लाये जाते हैं जिनके आधार पर भू — परिष्करण की क्रियाओं को निम्नलिखित दो समूहों में रखा गया है ।
1 . प्राथमिक भू परिष्करण ( Primary Tillage )
2 . द्वित्तीयक भू परिष्करण ( Secondary Tillage )
1 . प्राथमिक भू परिष्करण ( Primary Tillage )
किसी खेत की बीज शैया ( Seed bed ) को तैयार करने के लिए भूमि में की गई क्रियाओं को प्राथमिक भू परिष्करण ( Primary Tillage ) कहा जाता है ।
इन क्रियाओं के लिये प्रयोग किये जाने वाले मुख्य कृषि यन्त्रों में हल तथा हैरो इत्यादि होते हैं ।
2 . द्वित्तीयक भू परिष्करण ( Secondary Tillage )
खेत में बीज शैया तैयार हो जाने के उपरान्त बीज बोने के लिये अथवा उसके बाद जो सूक्ष्म ( Minor ) भू — परिष्करण क्रियाएं की जाती हैं उन्हें द्वितीयक भू — परिष्करण ( Secondary Tillage ) के अन्तर्गत रखा जाता है ।
ये क्रियाएं छोटे कृषि यन्त्र जैसे कल्टीवेटर स्वीपर तथा हैण्ड — हो इत्यादि की सहायता से की जाती हैं ।
भू परिष्करण की सभी क्रियाओं से भूमि एन्ध्रयुक्त हो जाती है जिससे उसमें वायु का संचार बढ़ता है ।
उस भूमि में जीवांश पदार्श की मात्रा बढ़ जाती है और इसके अपघटन की दर भी बढ़ती है जिससे फसलों को लाभ होता है ।
भू परिष्करण की क्रियाओं को करने से भूमि खरपतवार रहित हो जाती है जिससे खेत में उपस्थित फसलों का उचित विकास संभव होता हैं ।
विभिन्न फसलों के लिये अपनाई जाने वाली भू परिष्करण की क्रियायें फसलों की आवश्यकता अनुसार भिन्न होती हैं ।
किसी एक विशेष फसल के लिये भी उसको अनेक भिन्न परिस्थितियों में उगाने पर उसकी भु — मरिष्करण की क्रियायें आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित हो जाती हैं ।
उदाहरण के लिये दो भिन्न फसलों जैसे तम्बाकू व धान की नर्सरी की क्यारियों की तैयारी एक दूसरे से भिन्न होती है । नमोयुक्त मिट्टी वाली क्यारियों तथा सुखी मिट्टी वाली क्यारियों में बुवाई के लिये भू — परिष्कर की भिन्न क्रियाओं की आवश्यकता होती है ।
इसी प्रकार छोटे दानों वाली फसलों की बुवाई के लिए मिट्टी को भहीन बनाना आवश्यक होता है ।
जबकि मोटे दानों वाली फसलों की बुवाई के लिये अलग प्रकार की भू — परिष्करण क्रियाओं की आवश्यकता होती है ।
इस प्रकार भूमि के वातावरण में कुश क्रियाओं द्वारा सुधार करना । टिल्थ ( Soil Tilt ) कहलाता है ।
भू परिष्करण क्रियाओ का प्रभाव ( Effect of Tillage )
भू परिष्करण क्रियाओं का भूमि के वातावरण पर
( 3 ) रसायनिक ( Chemical )
( 4 ) जैविक ( Biological ) प्रभाव पड़ता है ।
इनका वर्णन निम्न प्रकार हैं ।
( 1 ) भू — परिष्करण क्रियाओं से भूमि में उचित वायु संचार होने लगता है ।
( 2 ) इनके द्वारा मिट्टी महीन भुरभुरी और पोली हो जाती है व उसकी जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है ।
( 3 ) मिट्टी की रचना कणीय हो जाती है ।
( 4 ) भूमि की संरचना में सुधार होता है ।
( 5 ) भूमि का pH मान सामान्य होने लगता है ।
( 6 ) ऊसर भूमि में सुधार होने के कारण वह खेती योग्य हो जाती है ।
( 7 ) भूमि का ताप नियंत्रित होता है और भूमि में जल की उपलब्धता बढ़ जाती है ।
( 8 ) भूमि की रन्ध्रावकाशों की संख्या में वृद्धि होती है तथा उसकी पारगम्यता बढ़ती है ।
( 9 ) भू — परिष्करण की क्रियाओं द्वारा भूमि में ऑक्सीकरण व अपचयन की क्रियाओं की गति तीव्र होती है ।
( 10 ) द्वारा बीजों के अंकुरण व बीजांकुर ( Seedling ) के स्थापन के लिये उचित तापक्रम प्राप्त होता है ।
( 11 ) पौधों की जड़ों को सौर — ऊर्जा आसानी से उपलब्ध होने लगती है ।
( 12 ) जैविक पदार्थ मिट्टी में पौधों के लिये भोजन तत्व का निर्माण करते हैं ।
( 13 ) पाटे की क्रिया से भूमि नी छिद्रों की संख्या कम हो जाती है फलस्वरूप कोशिका जल की गति बढ़ जाती है और फसलों की सिंचाई कम करनी पड़ती है ।
भू परिष्करण क्रियाओं के रसायनिक प्रभाव ( Chemical Effects of Landscaping Activities )
( 1 ) भूमि में भू — परिष्करण क्रियाओं से उचित वा संचार , नर्मी तथा ताप नियंत्रण के कारण लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है जिससे भूमि में अधिक मात्रा में नाइट्रेट का निर्माण होता है ।
( 2) भूमि में शुद्ध एवं पर्याप्त वायु संचार के कारण खनिज तथा कार्बनिक पदार्थों में ऑक्सीकरण की क्रिया बढ़ने से हानिकारक जीवाणुओं की संख्या घट जाती है ।
( 3 ) इन क्रियाओं के करने से भू — कणों के साथ संस्थापित ( Fixed ) पोटाश तथा फास्फोरस अलग होकर पौधों को प्राप्त होने लगते हैं ।
भू परिष्करण क्रियाओं के जैविक प्रभाव ( Biological Effects of Tillage Operations )
( 1 ) भू परिष्करण की क्रियाओं से सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है तथा उनकी क्रियाशीलता बढ़ जाती है ।
( 2 ) सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ने से भूमि में नाइट्रोजनीकरण तथा अमोनीकरण जैसी क्रियाएँ तेजी से होने लगती हैं ।
( 3 ) इसके फलस्वरूप नाइट्रोजन का प्रचुर मात्रा में निर्माण होता है और पौधों की वृद्धि तीव्र गति से होंने लगती है।
भू — परिष्करण की क्रियाओं में कृषि यन्त्रों के प्रयोग से भमि की ऊपरी पर एर अनेक क्रियाएँ की जाती हैं ।
निसन्देह इनसे मृदा में पौधों की वृद्धि के लिये एक उचित वातावरण बनता है तथा मृदा में गुणात्मक सुधार ( Qualitative improvement ) होते है जिससे पौधों को भी लाभ होता है ।
भू परिष्करण के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं -
में परिष्करण की क्रियाओं से मृदा की ऊपरी परत टूट जाने पर उसमें चालू का उचित संचार होता है तथा मृदा कणों की संरचना में भी सुधार होता है ।
मृदा कण एके दूसरे से अलग हो जाते हैं और मृदा भुरभुरी हो जाती है । इससे पधिों की जड़ें मृदा में सरलतापूर्वक प्रवेश कर पाती हैं ।
इससे अतिरिक्त मृदा में उपस्थित नमी तथा मृदा तापक्रम भी नियंत्रित रहता है । इससे पौधों की उचित बढ़वार होती है ।
करण क्रियाओं के समय उसमें उपस्थित विभिन्न प्रकार के खरपतवार व उनके कन्द नष्ट हो जाते हैं ।
इससे मृदा में उपस्थित खाद्य — पदार्थों को पौधे सरलतापूर्वक ग्रहण करते हैं और उनकी तीव्र वृद्धि होती है ।
इसके फलस्वरूप फसल का उत्पादन अधिक होता है तथा खरपतवारों के अवशेष मटा में अपघटित होकर उसकी उर्वरता में वृद्धि करते हैं ।
मृदा में उपस्थित खनिज पदार्थों तथा कार्बनिक पदार्थों में भी वृद्धि होती है ।
भू — परिष्करण की क्रियाओं से मृदा के एन्थ्रों में उपस्थित विभिन्न प्रकार के कीड़े मकोडे , फफेद तथा कीड़े मकोड़ों के अंडे आदि भी नष्ट हो जाते हैं तथा अपघटित होकर मृदा की उर्वरता में वृद्धि करते हैं ।
प्राथमिक तथा द्वित्तीयक भू — परिष्करण की क्रियाओं में किसी फसल को उगाने के लिये बीज शैया तैयार करना , बीज को मिट्टी से ढकना , अंकुरण के पश्चात विभिन्न प्रकार की खाद को मिट्टी में मिलाना , फसलों के अवशेषों को मिट्टी में मिलाना , पौध की रौपाई करना तथा फसलों की समान रूप से कटाई करना आदि क्रियाएँ सम्मिलित हैं ।
इन सभी से सम्बन्धित भू — परिष्करण क्रियाएँ फसल के उत्पादन के लिये आवश्यक होती हैं ।
भू — परिष्करण की क्रियाओं से मृदा के कटाव में कमी आती है तथा मृदा ह्रास ( Depletion ) कम हो जाता है ।
इन क्रियाओं से मृदा उच्चीकरण ( Upadlation ) संभव होता है ।
मृदा समतल भी हो जाता है जिससे भूमि में सिंचाई तथा जल निकास की क्रियाएँ सरलतापूर्वक संभव होती हैं । मृदा में जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है ।
भू परिष्करण क्रियाएं ( Tillage actions )
किसी फसल के उत्पादन के लिए उसके सम्पूर्ण जीवन — चक्र ( life — cycle ) में कुछ अवस्थाओं पर विभिन्न प्रकार की भू — परिष्करण क्रियाएँ की जाती हैं ।
भू परिष्करण के की जाने वाली क्रियाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं ।
( 1 ) भूमि की जुताई करना ( Plouching of Field ) -
भूमि की उथली एवं गहरी जताइयाँ आवश्यकता के अनुसार उचित समय पर की जाती हैं । इससे भूमि बुवाई के लिए तैयार हो जाती है ।
जुताई से भूमि में वाय संचार होता है । भूमि की ग्रीष्मकालीन जुताई करने से भमि की नमी समाप्त हो जाती है ।
गहरी जुताई करने से खरपतवारों तथा मृदा रन्ध्रों में उपस्थित फफूद , कीड़े मकोड़ों तथा इनके अण्डों आदि पर भी नियन्त्रण होता है ।
( 2 ) हैरो चलाना ( Harrowing ) -
भूमि की सतह पर उचित नमी के समय हेरो चलाने से मिट्टी महीन एवं पोली हो जाती है , जिससे विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ भूमि में करना सरल । हो जाता है ।
( 3 ) कल्टीवेटर का प्रयोग ( Use of Cultivator ) -
पंक्तियों में बोई गई फसलों में कल्टीवेटर का प्रयोग कर कृषण क्रियाएँ की जाती हैं ।
कल्टीवेटर के प्रयोग से भूमि को उसरी सतह पर बनी पपड़ी को तोड़ा जा सकता है जैसे — गन्ने की बुवाई के पश्चात कल्टीवेटर चलाकर कृषण क्रियाएँ की जाती हैं ।
4 ) पटेले का प्रयोग ( Use of plank ) -
पटेले के प्रयोग से मिट्टी महीन हो जाती है । भूमि सतह पर ढेले लाभग समाप्त हो जाते हैं ।
विभिन्न फसलों की बुवाई के पश्चात पटेले का प्रयोग बहुत आवश्यक होता हैं । इससे मिट्टी की सतह पर बोया गया बीज मिट्टी की सतह से ढक जाता है ।
( 5 ) रोलर का प्रयोग ( Use of Roller ) -
सतह पर रोलर के प्रयोग से मिट्टी कणाकार हो जाती है और भूमि की संरचना से भी सुधार होता है ।
भूमि में नमी को बनाये रखा जा सकता है खरपतवार नियन्त्रण हेतु प्रयुक्त मृदा धूमक ( Soil Furnirants के प्रयोग के समय भी रोलर का प्रयोग किया जाता है ।
( 6 ) निराई — गुड़ाई करना ( Inter cultural operations ) -
भूमि में निराई — गुड़ाई करने से उचित वायु संचार , जल निकास व भूमि की जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है ।
( 7 ) खरपतवारों पर नियंत्रण ( Control on weeds ) -
भूमि में कृष्ण क्रियाओं को करने से खरपतवारों को नष्ट किया जा सकता है । विशेषतः ग्रीष्मकाल में भूमि की गहरी जन । खरपतवारों को समूल नष्ट करने में सहायक होती हैं ।
भू परिष्करण की अवधारणा ( Concept of Tillage )
न्यूनतम भू — परिष्करण की अवधारणा ( Minimum tillage concept )
अधिक भू — परिष्करण की क्रियाओं के करने से भूमि कटाव बढ़ता है , जुताई के हल का क्षेत्र बढ़ता है , वाष्पीकरण की दर बढ़ती है ।
मृदा कणों के आकार एवं प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
जीवांश पदार्थ नष्ट हो जाता है । रासायनिक व जैन पड़ जाती हैं और भू — परिष्करण की क्रियाओं पर होने वाला व्यय बढ़ जाता है ।
अतः की क्रियाएँ एक सीमा तक ही लाभकारी होती है इसे ही न्यूनतम भू — परिष्करण निम्नलिखित विधियों को अपनाकर न्यूनतम भू — परिष्करण संभव है।
अतः भू परिष्करण ही न्यूनतम भू — परिष्करण कहा जाता है ।
( 1 ) फसल के अवशेर्षों का प्रयोग
( 2 ) विकसित भू परिष्करण यन्त्रों का प्रयोग
( 3 ) रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग
( 4 ) खरपतवारनाशियों का प्रयोग
( 5 ) कीड़े मकोड़ों और बीमारियों पर नियंत्रण के लिये रसायनों का प्रयोग ।
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