समस्याग्रस्त भूमियों का सुधार एवं उनमें फसल उत्पादन

Agriculture Studyy
8 min readJun 1, 2020

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समस्याग्रस्त भूमियों का सुधार एवं उनमें फसल उत्पादन ( Reform of problematic lands and crop production in them )

समस्याग्रस्त भूमियों का सुधार ( Reform of problematic lands )

हमारे देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में से लगभग 100–6 मिलियन हैक्टेयर भूमि अम्लीय है ।

यह अम्लीय भूमि प्रमुख रूप से देश के विभिन्न राज्यों जैसे आसाम , काश्मीर , उड़ीसा , कर्नाटक , मध्य प्रदेश , बिहार , हिमाचल प्रदेश , पश्चिमी बंगाल , केरल , महाराष्ट्र , उत्तर प्रदेश , तमिलनाडु तथा अन्य स्तर पूर्वी राज्यों में पाई जाती है ।

इन क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों की उपज अम्लता के कारण कम होती है । इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग गरीब होते हैं ।
अतः इनका आर्थिक और सामाजिक स्तर सुधारने के लिए विशेष देख — रेख की आवश्यकता होती है ।

ऐसी भूमियाँ जिनका pH मान 7 से कम होता है , उन्हें अम्लीय भूमियाँ ( Acidic Soils ) कहते हैं ।

भूमि की pH 7 से जितनी कम होती रहती है उतनी ही उसमें अम्लता बढ़ती जाती है । अम्लीय भूमियों में हाइड्रोजन आयन ( Ht ) अधिक मात्रा में पाए जाते हैं ।

भूमि में अम्लता बढ़ने पर हाइड्रोजन आयनों की संख्या भी बढ़ती है । भूमि का pH मान सामान्य से कम होने पर उसमें कृषि करना कठिन हो जाता है । इनमें कार्बनिक पदार्थ अधिक मात्रा में पाया जाता है ।

प्रायः अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों की भूमियाँ अम्लीय हो जाती हैं । इन भूमियों में सोडियम आयनों की कमी हो जाती है और उनके स्थान पर हाइड्रोजन आयन अधिक मात्रा में आ जाते हैं ।

1 . इन भूमियों का pH मान 7 से कम होता है ।

4 . इन भूमियों में हाइड्रोजन आयनों ( H + ) की अधितकता होती है तथा OH — आयन कम मात्रा में पाए जाते हैं ।

विभिन्न विशेषताओं के होते हए इन भूमियों में पोषक तत्वों की उपलब्धता , सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता , भूमि संरचना , पौधे की वृद्धि तथा विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे उपज में भारी गिरावट आती है ।

समस्याग्रस्त भूमियों में फसल उत्पादन ( Crop production in problematic lands )

अम्लीय भूमियों में फसल उगाने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है -

अम्लीय भूमियों में क्षारीय उर्वरकों का प्रयोग करने से भूमि की अम्लता कम होने लगती है और उसमें विभिन्न प्रकार की फसलें उगाना सम्भव हो जाता है । क्षारीय उर्वरकों के प्रयोग से भूमि उदासीन हो जाती है ।

उदाहरण — सोडियम नाइट्रेट NaNO , तथा कैल्शियम नाइट्रेट Ca

यह भूमियाँ अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाने के कारण इनमें अतिरिक्त जल एकत्र हो जाता है । इसी कारण से इन भूमियों का निर्माण भी होता है । अतः इस अतिरिक्त जल को खेत से बाहर निकालने की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए ।

अम्लीय भूमियों से पोटेशियम तत्व विस्थापित हो जाने के कारण इस तत्व का भूमि में अभाव हो जाता है । अतः पोटेशियम क्लोराइड या पौटेशियम सल्फेट आदि पोटाश युक्त उर्वरकों का प्रयोग कर हम फसलों की अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं ।

अम्लीय भूमि में चूने के प्रयोग से भूमि का pH मान बढ़ता है । इनके प्रयोग से पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है . भूमि की भौतिक अवस्था में सुधार होता है व दलहनी फसलों में सूक्ष्म — जीवाणु अपना कार्य भली — भाँति करने लगते हैं ।

अत: भू में चूने के प्रयोग से भूमि सुधर जाती है और उसमें फसल उगाना सम्भव हो जाता है ।

इन भूमियों में ऐसी फसलों को उगाना चाहिए जो अम्लता को सहन कर लेती है । विभिन्न फसलों की अम्लता सहन करने की क्षमता अलग — अलग होती है ।

उदाहरण — सक्का , जई , ज्वार , तम्बाक . जौं , कपास तथा लोबिया आदि फसलें अधिक अम्लता को भी सहन कर लेती हैं ।

लवणीय एवं क्षारीय भूमि ( Saline and Alkaline Soils )

भारत में इस समय लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणों की अधिकता से प्रभावित हो चुकी है । इन भूमियों की ऊपरी सतह पर घुलनशील लवण पाए जाते हैं ।

घुलनशील लवणों की उपस्थिति के कारण इन भूमियों पर बीजों के उगने से लेकर पौधों की वृद्धि तक सभी अवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे पौधा या फसल पूर्णत : नष्ट हो सकते हैं ।

ऐसो भूमि की उत्पादकता लवणों की अधिकता के कारण समाप्त हो जाती है ।

इसीलिए इस भूमियों को अनुत्पादक भूमि कहा जाता है । लवणों से प्रभावित यह भूमि देश की विभिन्न राज्यों

जैसे — उत्तर प्रदेश , गुजरात , पश्चिमी बंगाल , राजस्थान , पंजाब , महाराष्ट्र , हरियाणा , कर्नाटक , उड़ीसा , मध्य प्रदेश , आन्ध्र प्रदेश , दिल्ली , केरल , बिहार और तमिलनाडु आदि में फैली हुई है । उत्तर प्रदेश में लवण प्रभावित भूमि मैनपुरी , अलीगढ़ , एटा , फरूखाबाद , इटावा , कानपुर , इलाहाबाद व फतेहपुर आदि जिलों में पाई जाती है ।

इन भूमियों में घुलनशील लवणों की सान्द्रता व विनिमय सोडियम महत्वपूर्ण होते हैं ।

लवणीय व क्षारीय , भूमियों की विशेषताओं के आधार पर इनको तीन भागों में बाँटा गया है -

( i ) इन भूमियों का pH मान 7 से अधिक व 8 . 5 से कम होता है । विनिमय सोडियम प्रतिशत की मात्रा 15 से कम होती है । न भूमियों की विद्युत चालकता 4 mmhos / cm या इससे अधिक होती है ।

इन भूमियों में उगने वाले पौधों के जड़ क्षेत्र में घुलनशील लवणों की सांद्रता में विषैला प्रभाव होता है । इनको सफेद क्षारीय भूमि ( White alkali soils ) भी कहते हैं ।

( i ) इन भूमियों का pH मान 8 . 5 से अधिक होता है ।

( ii ) इनको विनिमय सोडियम प्रतिशत मात्रा 15 से अधिक होती है ।

( v ) इन भूमियों की ऊपरी सतह पर काले रंग की पपड़ी पाई जाती है ।

लवणीय व क्षारीय भूमियों को सुधारने के लिए विभिन्न विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं । इन विधियों में भौतिक विधियाँ , कार्बनिक खादों का प्रयोग , मृदा सूधारकों का प्रयोग , जैविक विधि तथा कृषि विधियाँ अपनाई जाती हैं ।

लवणीय व क्षारीय नियों के उचित प्रबन्ध एवं सफल फसलोत्पादन के लिए अपनाई जाने वाली क्रियाओं को दो भागों में बाँटा गया है -

( A ) जल प्रबन्ध ( Water Management )

( B ) भूमि व फसल ( Soil and Crop Management )

3 . अच्छी गुणवत्ता वाला जल प्रयोग करने से भूमि में लवणता कम हो जाती है । इसके लिए सिंचाई जल की जाँच कराना आवश्यक है ।

( B ) भूमि व फसल प्रबन्ध ( Soil and Crop Management )-

2 . पौर्षों की संख्या प्रति इकाई क्षेत्रफल में बढ़ा देनी चाहिए ।

6 . अधिक लवण सहनशील फसलों में जों , गन्ना व कपास जबकि कम लवण सहनशील फसलों में धान , मक्का , ज्वार , बरसीम व गेहूँ आदि हैं । कुछ ऐसी फसलें भी हैं जो लवणों को सहन नहीं कर पाती ।

जैसे — मटर , लोबिया , चना , मूंग व मूंगफली आदि ।

स्थायी कृषि विकास का मूल उद्देश्य फसल उत्पादन को स्थायी रूप से बढ़ाना है । कृषिकृत भूमियों में अधिक वर्षा के कारण , अत्याधिक सिंचाई , प्राकृतिक जल निकास का अभाव , नदियों में बाढ़ व विभिन्न अन्य कारणों से जल भर जाता है ।

यह जल खेत में उगी हुई फसल के जड़ क्षेत्र में वायु संचार में अवरोध उत्पन्न करता है , भूमि के ताप पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है जिससे भूमि में की जाने वाली कृषण क्रियाओं में विलम्ब होता है ।

इस अतिरिक्त जल से भूमि का जल स्तर कभी बढ़कर पौधों के जड़ क्षेत्र तक आ जाता है , भूमि की संरचना बिगड़ने लगती है । भूमि में लगातार पानी खड़ा रहने से भूमि दलदली ( Swampy ) बन जाती है ।

इस अतिरिक्त जल के भूमि पर लगातार खड़ा रहने से भूमि में उगी हुई फसल के जड़ क्षेत्र तक जल स्तर का आ जाना पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । इसे जलाक्रान्त भूमियाँ ( Waterlogged Soils ) कहते हैं ।

इन परिस्थितियों में भूमि में फसलों का उगाना असम्भव हो जाता है । अत : ऐसे क्षेत्रों में स्थायी रूप से जलाक्रान्ति अथवा जलमग्नता की समस्या उत्पन्न हो जाती है ।

इन क्षेत्रों को जलाक्रान्त क्षेत्र ( waterlogged area ) या जलमग्न क्षेत्र कहा जाता है और इन क्षेत्रों की भूमियों को जलाक्रान्त भूमि ( Waterlogged soils ) कहते हैं ।

उपरोक्त कारणों से पोषक तत्वों की अनुउपलब्धता व लीचिंग की क्रिया में पोषक तत्वों का ह्रास आदि कारणों से भूमि की उत्पादक क्षमता में कमी आ जाती है ।

जलाक्रान्त भूमियों में उगाने के लिए ऐसी फसल का चुनाव करना चाहिए जो जल की अधिकता को सहन कर लेती हैं ।

जैसे — धान । इन भूमियों में उगाने के लिए उपयुक्त जाति के चुनाव के साथ — साथ उपयुक्त समय पर फसलों की बुवाई व रौपाई तथा बुवाई की विधि व बीज दर में सामजस्य स्थापित करके कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है ।

शुष्क भूमियाँ ( Dry Soils )

भारत का कुल कृषि कृत क्षेत्रफल 143 मिलियन हैक्टेयर है । जिसके लगभग 70 % भाग पर शुष्क खेती की जाती है ।

इन क्षेत्रों से देश के कुल अन्न उत्पादन का एक बड़ा भाग प्राप्त होता है ।

हमारे देश में सिंचाई के संसाधनों का बहुतायत से प्रयोग होते हुए भी कुल कृषिकृत क्षेत्र का लगभग आधा भाग वर्षा पर आश्रित रहता है ।

जिस पर सिंचाई जल का अभाव बना रहता है । इसका प्रमुख कारण मानसून की अनिश्चितता का होना है ।

जिसमें वर्षा की मात्रा , प्रचण्डता और उसका वितरण , मानसून के जल्दी व देरी से आने जाने की सम्भावना और लम्बी अवधि तक फसल के उगने की अवधि में उसका सूखा रह जाना आदि सम्मिलित हैं ।

इसके लिए कुछ भूमि सम्बन्धी कारक जैसे भूमि में नमी की कमी भूमि का कम उर्वर होना तथा भमि कटाव आदि भी उत्तरदायी होते हैं ।

वर्षा आश्रित इन क्षेत्रों में 400–1000 मिमी . तक वार्षिक वर्षा होती है तथा सिंचाई की सुविधाओं का अभाव होता है । जिससे फसलोत्पादन पर प्रतिकल प्रभाव पड़ता है । इन क्षेत्रों को शुष्क क्षेत्र ( Dry area ) कहा जाता है और इन क्षेत्रों की भमि को शुष्क भूमि ( Dry land ) कहते हैं ।

शुष्क खेती ( Dry Farming ) शुष्क खेती फसल उत्पादन की एक ऐसी पद्धति है जिसमें कम व असामयिक वर्षा होने पर फसल उत्पादन हेतु भूमि में अधिक नमी एकत्रित की जाती है । इस पद्धति में फसलें बिना सिंचाई के उगाई जाती हैं ।

5 . इन क्षेत्रों में तेज गर्म हवाएँ चलने के कारण मृदा और भी अधिक शुष्क हो जाती है ।

शुष्क क्षेत्रों में सफल फसल उत्पादन वहाँ पर कुशल जल प्रबन्ध के ऊपर निर्भर करता है । उन्नत कृषि विधियाँ अपनाकर इन क्षेत्रों में फसलों की उपज को बढ़ाया जा सकता है ।

इन क्षेत्रों में जल संरक्षण करके निम्न विधियों द्वारा फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है -

1 . ग्रीष्मकालीन जुताई करने से फसल की उपज बढ़ जाती है ।

जल का क्षमताशाली प्रयोग करने पर शुष्क क्षेत्रों में फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है । इसमें शीघ्र बढ़ने वाली फसलों का चुनाव , गहरी जड़ वाली फसलों का चुनाव तथा फसलों की ऐसी किस्में जो शुष्क क्षेत्रों में उग सकती हैं , उनका चुनाव करना चाहिए ।

इन क्षेत्रों में मिश्रित खेती की काफी प्रबल सम्भावनाएँ हैं । इन क्षेत्रों में समय पर बुवाई अवश्य की जानी चाहिए । अधिक अन्तरण रखते हुए पंक्तियों में बुवाई करनी चाहिए ।

शुष्क क्षेत्रों में संतुलित मात्रा में उर्वरकों के प्रयोग , खरपतवार नियन्त्रण तथा कीड़ों व बीमारियों की रोकथाम करके भी फसलों के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है ।

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