सिंचाई की आधुनिक विधियां एवं उनके लाभ

Agriculture Studyy
9 min readJun 29, 2020

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सिंचाई की आधुनिक विधियां एवं उनके लाभ ( Modern methods of irrigation and their benefits )

सिंचाई की आधुनिक विधियां एवं उनके लाभ Methods of irrigation in hindi

सिंचाई किसे कहते है ( What is irrigation )

फल वाले पौधों की वानस्पतिक वृद्धि एवं फलत दोनों के लिये पानी की आवश्यकता होती है । केवल वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष दिनों में पौधों को सींचा जाता है ।

वर्षा ऋतु में भी जब वर्षा काफी अन्तर से होती है तो पौधों को आवश्यकतानुसार सिंचाई देना लाभप्रद होता है , जैसे कि यदि फल — वृक्षों से फल गिर रहे हों तो पानी देने से उनका गिरना बन्द हो जाता है ।

सिंचाई फल — वृक्षों की जाति के अनुसार अपना प्रभाव रखती है जैसे कि आम के पौधों को यदि एक बार पानी न भी दिया जाये तो विशेष हानि नहीं होती है लेकिन नींबू प्रजाति के पोध पानी के अभाव में सूखने लगते हैं ।

फल उद्यान में सिंचाई की आवश्यकता किसी स्थान विशेष की वर्षा की मात्रा एवं वितरण , मिट्टी की किस्म , वातावरण की आर्द्रता , फल वाले पौधे की जाति तथा तापक्रम इत्यादि पर निर्भर करती है ।

ये सभी बातें स्पष्ट रूप से नीचे दी गई हैं पानी देने की मात्रा तथा समय मिट्टी की किस्म के ऊपर निर्भर करता है ।

जैसे कि अगर भूमि चिकनी है तो एक बार में अधिक पानी चाहिये लेकिन बलुई मिट्टी में पानी की थोड़ी मात्रा कम अन्तर के साथ आवश्यक होती है , क्योंकि इसमें जल धारण करने की शक्ति कम होती है ।

प्रत्येक फल — वृक्ष को , उसकी वृद्धि के अनुसार अलग — अलग पानी की आवश्यकता होती है ।

उत्तर प्रदेश के मैदानी भाग में आम को लगाने के पाँच वर्ष पश्चात् अगर पानी न भी दिया जाये तो कोई विशेष हानि नहीं होती , लेकिन नींबू प्रजाति के फलों में पानी समय पर न देने से हानि होती है ।

ऐसे उद्यान जिनमें अन्तराशस्य ली जाती है उनमें पानी की अधिक आवश्यकता होती है । अपेक्षाकृत ऐसे उद्यान के जिनमें अन्तराशस्य पैदा नहीं की जाती है ।

ऐसे फल — उद्यान जिनके चारों तरफ वायु — वृत्ति ( Wind — break ) तथा घनी वृत्तिक्षुप ( Hedge ) लगी होती है उनमें गर्मियों में गर्म व तेज हवा प्रविष्ट नहीं होती , जिससे नमी काफी दिनों तक सुरक्षित रह सकती है ।

अतः कम पानी की आवश्यकता महसूस होती है , अपेक्षाकृत ऐसे उद्यान के जो कि चारों तरफ से खुले हुए रहते हैं ।

ऐसे स्थान जहाँ वर्षा का परिमाण तथा वितरण ठीक होता है , आर्द्रता ( Humidity ) अधिक रहने से पानी की कम आवश्यकता होती है , अपेक्षाकृत ऐ न में जहाँ वर्षा अनियमित होती है ।

उदाहरण के लिये ;

पीलीभीत पहले वर्ग में आयेगा तथा इलाहाबाद दूसरे में । तापक्रम का प्रभाव भी सिंचाई की मात्रा एवं संख्या पर पड़ता है ।

अधिक तापक्रम वाले स्थान : जैसे — बनारस इत्यादि जहाँ गर्मियों में अधिक तापक्रम ( 1080 फै० ) ( 42 : 2°C ) हो जान से गर्मी अधिक पड़ती है , उद्यान में सिंचाई कम अन्तर से आवश्यक होती है तथा प्रति सिंचाई पानी की अधिक मात्रा भी खर्च होती है , अपेक्षाकत कम तापक्रम वाले स्थान ,

जैसे देहरादून , जहाँ गर्मियों में तापक्रम 102° से . 104° फै० ( 39 से 40°C ) से कभी ऊपर नहीं जाता । पानी की आवश्यकता ‘ आवरणशस्य ‘ की किस्म के ऊपर भी निर्भर करती है ।

उदाहरण के लिये ,

नींबू प्रजाति के उद्यान में मटर को आवरणशस्य के रूप में लेने से पानी की कम आवश्यकता होगी अपेक्षाकृत ऐसे उद्यान के जिसमें बरसीम की आवरणशस्य ली जाती है ।

जैसा कि उपर्युक्त स्पष्टीकरण दिया जा चुका है कि फल — वृक्षों की सिंचाई बहुत — सी बातों पर निर्भर करती है।

अतः इसके लिये कोई विशेष नियम नहीं बनाया जा सकता ।

सभी बातो को ध्यान में रखते हुए उद्यान कर्ता को स्वयं ही उद्यान में दी जाने वाली सिंचाई की मात्रा एवं उसके बीच के अन्तर के बारे में निर्णय लेना पड़ता है ।

पूर्ण विकसित पौधे को जब भूमि की सतह से नीचे लगभग 30 सेमी भूमि सूख जाये तो पानी देना चाहिये ।

सिंचाई में पानी की उतनी ही मात्रा देनी चाहिये जो मिट्टी को भिगोने के बाद अधिक समय तक पौधों के चारों तरफ न ठहरे ।

सिंचाई की आधुनिक विधियाँ ( Modern methods of irrigation and their benefits )

( अ ) पानी को फैलाकर देना ( Flooding )

( ब ) क्षेत्र को सीमित रूप से क्यारी बनाकर सींचना ( Check Bed System )

( स ) बेसिन विधि ( Basin System )

( द ) वलय विधि ( Ring System )

( य ) सीता विधि ( Furrow System )

( र ) कण्ट्रर विधि ( Contour System )

3 . छिड़काव विधि ( Spriking Irrigation or Over Head Irrigation )

( 1 ) सतही सिंचाई ( Surface Irrigation )

सिंचाई की इस विधि के अन्दर पानी को उद्यान के अन्दर फैला दिया जाता है , जिससे पानी किसी स्थान पर अधिक व किसी स्थान पर कम पहुँचता है । यह समस्या उस समय होती है ।

भूमि समतल नहीं होती है । इस विधि के दूसरे तरीके में भूमि को बड़े — बड़े टुकड़ों में बाँटकर पानी दिया जाता है । एक टुकड़ा भर जाने के बाद ही पानी दूसरे टुकड़े में खोला जाता है ।

1 . पानी देना सस्ता पड़ता है ।

2 . पानी देने में कार्य — दक्ष मजदूर की आवश्यकता नहीं होती

1 . पानी की अधिक मात्रा खर्च होती है ।

2 . किसी स्थान पर पानी अधिक व किसी स्थान पर कम पहुँचता है ।

3 . भूमि के प्रांगारिक पदार्थ ( Organic matter ) बहकर नीचे चले जाते हैं ।

4 . अधिक पानी भरने से पौधों को हानि होती है ।

5 . खरपतवारों की अधिक वृद्धि होती है ।

6 . पानी तने के सम्पर्क में रहने से छाल को हानि पहुँचती है ।

यह Flooding का ही एक रूप है । इसमें उद्यान को छोटी — छोटी क्यारियाँ बनाकर सींचा जाता है ।

प्रत्येक क्यारी का आकार समान होता है तथा प्रत्येक क्यारी में एक या दो फल वाले पौधे रखे जाते हैं ।

दो क्यारियों की पंक्ति के बीच में सिंचाई की एक नाली देकर मुख्य नाली से जोड़ दिया जाता है । सभी क्यारियों को एक — एक करके सींच देते हैं ।

यह तरीका उन उद्यानों में अधिकतर अपनाया जाता है जहाँ पर उद्यान के अन्दर कोई आवरणशस्य ली जाती है जैसे माल्टा के उद्यान में बरसीम की आवरणशस्य लेना ।

इसमें पानी की अधिक मात्रा खर्च होती है तथा मिट्टी की बनावट को हानि पहुँचने की सम्भावना रहती है ।

1 . Flooding की अपेक्षाकृत पानी कम खर्च होता है।

2 . उद्यान में पानी समान रूप से दिया जाता है ।

3 . भूमि का प्रांगारिक पदार्थ ( Organic matter ) बहकर नष्ट नहीं हो पाता ।

4 . आवरणशस्य उत्पन्न किये जाने वाले उद्यान में हितकर सिद्ध होता है ।

1 . क्यारियाँ बनाने में अधिक व्यय होता है ।

2 . मेड़ों में अधिक भूमि घेर ली जाती है ।

3 . मिट्टी की बनावट को हानि पहुँचने की सम्भावना रहती है

सिंचाई की इस विधि में पंक्ति के सभी पौधों को एक ही सिंचाई की नाली द्वारा जोड़ दिया जाता है । प्रत्येक पौधे के चारों तरफ छोटा थांवला बना देते हैं ।

पंक्ति की नाली का सम्बन्ध सिंचाई की मुख्य नाली से कर दिया जाता है ।

एक पंक्ति के पौधे सींचने के बाद पानी दूसरी पंक्ति की नाली में छोड़ दिया जाता है । इस प्रकार से पूरे बाग की सिंचाई कर दी जाती है ।

1 . इसमें पानी की कम मात्रा खर्च होती है ।

2 . पौधों की छोटी अवस्था में , जब उनकी जड़ें सीमित क्षेत्र में ही रहती हैं . यह तरीका लाभकारी सिद्ध होता है ।

3 . यह विधि ऐसी जगह अपनायी जा सकती है जहाँ की मिट्टी रेतीली ( Sandy ) होती है तथा पानी कम मात्रा में उपलब्ध रहता है ।

1 . पंक्ति के सभी पौधों को सिंचाई की एक ही नाली द्वारा सींचा जाता है जिससे एक पौधे की बीमारी , कीड़े एवं खाद दूसरे पौधे में पानी द्वारा बहकर पहुँच जाते हैं ।

2 . पानी तने के सीधे सम्पर्क में रहता है जिससे उनकी छाल खराब हो जाती है ।

3 किसी विशेष पौधे को सींचने के लिये उसके पहले के सभी पौधों को अनावश्यक सींचना पड़ता है ।

4 . श्रम व पैसा अधिक लगता है ।

इसमें प्रत्येक पौधे को अलग — अलग थाँवला बनाकर सींचा जाता है ।

पौधों की दो पंक्तियों के बीच में एक सिंचाई की नाली देकर दोनों तरफ के पौधों को इस नाली से जोड़ दिया जाता है ।

पंक्तियों के बीच की नालियों का सम्बन्ध सिंचाई की मुख्य नाली से कर दिया जाता है ।

प्रत्येक पौधे के चारों तरफ थांवला बनाकर पौधे के तने के चारों तरफ कुछ मिट्टी चढ़ा दी जाती है , जिससे वे पानी द्वारा खराब न हो सकें ।

थाँवलों का आकार पौधे के फैलाव के अनुसार बढ़ाते जाते हैं ।

1 . एक पौधे की बीमारी , कीड़े एवं खाद , पानी के साथ बहकर दूसरे पौधे में नहीं पहुँच पाती है ।

2 . पानी तने के सम्पर्क में नहीं रहता , जिससे वह खराब नहीं होता ।

3 . किसी विशेष पौधे को किसी भी समय सींच सकते हैं ।

4 . सभी पौधों को पानी पृथक् रूप से आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है ।

हानियाँ ( Disadvantages ) -

1 . बेसिन विधि की अपेक्षाकृत पानी अधिक खर्च होता है ।

2 . सिंचाई की नालियों एवं थांवलों में अधिक भूमि घेर दी जाती है ।

3 . श्रम व पूँजी अधिक व्यय होती है ।

यह विधि अधिकतर दोमट तथा चिकनी ( मटियार ) भमि के लिये प्रयोग में लाई जाती है । इसमें पानी , नालियाँ तैयार करके उन्हीं में दिया जाता है ।

नालियों का आकार छिछला व चौड़ा होना चाहिये क्योंकि ऐसी नालियों द्वारा पानी का वितरण ठीक प्रकार से होता है तथा मिट्टी भी नहीं कट पाती है ।

नालियों में पानी को मंद गति से बहाया जाता है जिससे पौधों द्वारा पानी का शोषण सुचारु रूप से हो सके ।

अधिक लम्बी नालियाँ बनाने से सिरे पर पानी खराब पहुँचता है तथा खाद्य — पदार्थ बहकर नीचे चला जाता है ।

फल वाले छोटे पौधों की पंक्ति के दोनों ओर एक — एक फॅड बनाकर पानी बहाया जाता है ।

पौधों की पंक्ति के बीच फंडों की संख्या बढ़ाते जाते हैं । पौधे की जड़ें जिस कँड के पास होती हैं वहीं से पानी का शोषण कर लेती हैं ।

1 . पौधों द्वारा पानी का शोषण भली प्रकार होता है ।

2 . पानी की कम मात्रा खर्च होती है ।

हानियाँ ( Disadvantages ) -

1 . पौधे के बीच सभी जमीन फॅडों द्वारा घेर ली जाती है ।

2 . श्रम व पैसा अधिक खर्च होता है ।

यह विधि पहाड़ी क्षेत्रों में अपनाई जाती है , जहाँ भूमि ऊँची — नीची होती है । भूमि को ढलान के अनुसार छोटे — छोटे खेतों में बाँट लेते हैं ।

जब ऊपर का क्षेत्र भर जाता है तो पानी स्वतः ही नीचे उतरने लगता है । इस प्रकार पूरे क्षेत्र को सींच दिया जाता है ।

( 2 ) भूमिगत सिंचाई ( Sub — surface Irrigation )

नहर , बम्बे इत्यादि से सिंचाई का पानी रिसकर नीचे आ जाता है , जिसका शोषण पास वाले पौधों द्वारा कर लिया जाता है ।

इस विधि के अन्दर पौधों की जड़ों के नीचे छिद्रक पाइप ( Porous pipe ) डाल दिये जाते हैं ।

इस प्रकार के पाइपों से जाने वाला पानी छिद्रों से निकल कर बाहर आता रहता है जिसका शोषण पौधों की जड़ों द्वारा होता रहता है ।

यह विधि अधिक खर्चीली होने के कारण केवल वहीं पर अपनाई जाती है जहाँ पर पानी बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध होता है ।

( 3 ) छिड़काव विधि ( Sprinking Irrigation or Over Head Irrigation )

फल वाले पौधों में यह विधि केवल रोपणी तक ही सीमित होती है जहाँ पर पौधे घनी अवस्था व छोटे आकार में रहते हैं ।

इसमें पानी को छोटी — छोटी बूंदों के रूप में हजारे द्वारा छिड़क दिया जाता है ।

ग्रीन हाउसिस व ग्लास हाउसिस में Mist formation के लिये इस विधि का ही प्रयोग करते हैं जहाँ पर अति कोमल कर्तन व पौधे लगाये जाते हैं तथा पानी छोटी — छोटी बूंदों के रूप में गिरकर कुहरे की तरह छा जाता है ।

( 4 ) ड्रिप या ट्रिकिल विधि ( Drip or Tricle Irrigation )

सर्वप्रथम इसको इजरायल में प्रयोग किया गया । भारत में इसको अभी हाल में ही प्रयोग किया गया ।

इसमें पानी प्लास्टिक की नलिकाओं एवं वाल्व की सहायता से दिया जाता है जो पौधों के पास जुड़े होते हैं । पानी के साथ उर्वरक का घोल भी मिश्रित होकर पौधों को प्राप्त होता है ।

जिससे पौधों की वृद्धि अच्छी होती है तथा पानी की भी बचत होती है ।

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